Civil Services in India

प्रिय दोस्तों इस ब्लॉग में आज हम बात कर रहे हैं Civil Services in India भारत में नागरिक सेवा (सिविल सर्विस) के बारे में उम्मीद है ये आर्टिकल आपको पसंद आएगा

भारत में नागरिक सेवा (सिविल सर्विस)

Civil Services in India भारत में नागरिक सेवा (सिविल सर्विस) का जन्मदाता लॉर्ड कॉर्नवॉलिस था। जैसा कि सर्वविदित है कि आरंभ से ही भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का व्यापार कर्मचारियों के जरिए होता था। कर्मचारियों को बहुत कम मजदूरी दी जाती थी मगर उन्हें अपना निजी व्यापार करने की इजाजत थी। बाद में जब कंपनी एक क्षेत्रीय शक्ति बन गई, तब उन्हीं कर्मचारियों ने प्रशासनिक कार्य करने आरंभ किए। वे तब अत्यंत भ्रष्ट हो गए। स्थानीय बुनकरों और दस्तकारों, सौदागरों और जमींदारों का उत्पीड़न कर, राजाओं और नवाबों से घूस और नजराना ऐंठकर गैरकानूनी निजी व्यापार के जरिए उन्होंने अकूत संपत्ति इकट्ठी की, और उसे लेकर सेवानिवृत्त हो इंग्लैंड चले गए। क्लाइव और वारेन हेस्टिंग्स ने उनके भ्रष्टाचार को समाप्त करने के प्रयास किए मगर वे इस काम में आंशिक रूप से ही सफल रहे।

Civil Services in India

कॉर्नवॉलिस 1786 में भारत का गवर्नर जनरल बनकर आया (वह प्रशासन को स्वच्छ बनाने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ था) मगर उसने महसूस किया कि कंपनी के कर्मचारी तब तक ईमानदारी और कुशलतापूर्वक काम नहीं कर सकते जब तक उन्हें पर्याप्त वेतन नहीं दिए जाते। इसीलिए उसने निजी व्यापार तथाअफसरों द्वारा नजराने और घूस लिए जाने के खिलाफ सख्त कानून बनाए। साथ ही उसने कंपनी के कर्मचारियों के वेतन भी बढ़ा दिए। उदाहरण के लिए,जिले के कलक्टर का वेतन 1500 रुपये प्रति माह निर्धारित किया गया। इसके अतिरिक्त उसे अपने जिले की कुल वसूल की गई राजस्व रकम का एक प्रतिशत दिया जाना तय हुआ। वस्तुतः कंपनी की नागरिक सेवा, संसार में सबसे अधिक भुगतान पाने वाली सेवा हो गई। कॉर्नवॉलिस ने यह भी निर्धारित किया कि नागरिक सेवा में पदोन्नति वरिष्ठता के आधार पर होगी जिससे उसके सदस्य बाहरी प्रभाव से मुक्त रहें।

लॉर्ड वेलेजली https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A5%89%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A1_%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A5%80  ने 1800 में नागरिक सेवा में आने वाले युवा लोगों के प्रशिक्षण के लिए कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज खोला। कंपनी के निदेशकों ने उसकी कार्रवाई को पसंद नहीं किया और 1806 में उन्होंने कलकत्ता के कॉलेज की जगह इंग्लैंड में हैलीवरी के अपने ईस्ट इंडिया कॉलेज में प्रशिक्षण का काम आरंभ किया। 1853 तक नागरिक सेवा में सारी नियुक्तियां ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशक करते रहे। बोर्ड ऑफ कंट्रोल के सदस्यों को खुश करने के लिए उन्होंने उन्हें कुछ नियुक्तियां करने का मौका दिया। निदेशकों ने इस लाभप्रद और बहुमूल्य विशेषाधिकार को बनाए रखने के लिए बहुत संघर्ष किया। जब संसद ने उनके अन्य आर्थिक और राजनीतिक विशेषाधिकारों को छीन लिया तब भी उन्होंने इस विशेषाधिकार को छोड़ने से इनकार कर दिया। अंततोगत्वा 1853 में वे उसे खो बैठे जब चार्टर ऐक्ट ने यह कानूनी व्यवस्था लागू कर दी कि नागरिक सेवा में सारे प्रवेश प्रतियोगी परीक्षाओं के द्वारा किए जाएंगे।

कॉर्नवॉलिस के जमाने से ही भारतीय नागरिक सेवा की एक खास विशेषता थी – भारतीयों को बड़ी सख्ती से पूरी तरह अलग रखना। अधिकृत तौर पर 1793 में यह व्यवस्था की गई थी कि प्रशासन में उन सारे ऊंचे ओहदों पर जहां 500 पौंड सालाना से अधिक वेतन मिलता था, केवल अंग्रेज ही नियुक्त हो सकते हैं। इस नीति को सरकार की अन्य शाखाओं जैसे सेना, पुलिस, न्यायपालिका और इंजीनियरिंग में भी लागू किया गया। कॉर्नवॉलिस की जगह गवर्नर-जनरल बन कर भारत आने वाले जॉन शोर के शब्दों में – अंग्रेजों का बुनियादी सिद्धांत सारे भारतीय राष्ट्र को हर संभव तौर पर अपने हितों और फायदों के लिए गुलाम बनाना था। भारतवासियों को हर सम्मान, प्रतिष्ठा या ओहदे से वंचित रखा गया है जिन्हें स्वीकार करने के लिए छोटे-से-छोटे अंग्रेजों की भी चिरौरी की जा सकती है।

अंग्रेजों ने ऐसी नीति का अनुसरण क्यों किया? इसके लिए अनेक कारक संयुक्त रूप से जिम्मेदार थे। सर्वप्रथम, उन्हें विश्वास था कि ब्रिटिश विचारों, संस्थानों, और व्यवहारों पर आधारित कोई प्रशासन केवल अंग्रेज कार्यकर्ताओं द्वारा ही पूरी तरह स्थापित किया जा सकता है। उन्हें भारतीय लोगों की योग्यता और ईमानदारी पर भरोसा नहीं था। उदाहरण के लिए चार्ल्स ग्रांट ने भारतीय जनता की निंदा करते हुए कहा कि वह ‘मनुष्यों की अत्यंत पतित और निकृष्ट नस्ल है जिसमें नैतिक जिम्मेदारी की भावना नाममात्र रह गई है… और जो अपने दुर्गुणों के कारण विपन्नता में धंसी हुई है।‘ इसी तरह कॉर्नवॉलिस का विश्वास था कि ‘हिंदुस्तान का हर निवासी भ्रष्ट है।‘ उल्लेखनीय है कि यह आलोचना कुछ हद तक तत्कालीन भारतीय अफसरों और जमींदारों के एक छोटे वर्ग पर जरूर लागू होती थी। मगर यह आलोचना समान रूप से भारत स्थित ब्रिटिश अफसरों पर भी सटीक बैठती थी। वस्तुतः कॉर्नवॉलिस ने उन्हें ऊंचे वेतन देने का प्रस्ताव इसीलिए रखा था कि उन्हें प्रलोभन से दूर रखने में सहायता मिले और वे ईमानदार और आज्ञाकारी बन सकें। मगर उसने पर्याप्त वेतन का यह उपाय भारतीय अफसरों के बीच से भ्रष्टाचार हटाने के लिए लागू करने के बारे में कभी नहीं सोचा।वास्तव में, सेवाओं के उच्च वेतनमानों से भारतीयों को वंचित रखने की नीति. जानबूझकर अपनाई गई थी। इन सेवाओं की जरूरत उस समय भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना करने तथा उसे मजबूत बनाने के लिए थी। जाहिर है कि यह काम भारतीयों पर नहीं छोड़ा जा सकता था जिनमें अंग्रेजों की तरह ब्रिटिश हितों के लिए न तो एक सहज सहानुभूति थी और न उनकी सी समझदारी। वस्तुतः इन नियुक्तियों को लेकर उनके बीच घनघोर संघर्ष हुए। नियुक्ति करने का अधिकार कंपनी के निदेशकों और ब्रिटिश मंत्रिमंडल के बीच बहुत दिनों तक विवाद का विषय बना रहा। ऐसी स्थिति में अंग्रेज भारतवासियों को इन जगहों पर कैसे आने देते? मगर छोटे ओहदों के लिए भारतवासियों को बड़ी संख्या में भर्ती किया गया क्योंकि वे अंग्रेजों की अपेक्षा कम वेतन पर तथा आसानी से उपलब्ध थे।

भारतीय नागरिक सेवा (इंडियन सिविल सर्विस) धीरे-धीरे दुनिया की एक अत्यंत कुशल और शक्तिशाली सेवा के रूप में विकसित हो गई। उसके सदस्यों को काफी अधिकार थे और बहुधा वे नीति-निर्माण के कार्य में भाग लेते थे। उन्होंने आजादी, ईमानदारी और कठिन परिश्रम की कतिपय परंपराएं विकसित कीं, यद्यपि इन गुणों ने स्पष्टतया भारतीय हितों को नहीं बल्कि ब्रिटिश हितों को साधा। उनको यह विश्वास हो गया कि भारत पर शासन करने का उन्हें लगभग दैविक अधिकार मिल गया है। भारतीय नागरिक सेवा (इंडियन सिविल सर्विस) को बहुधा ‘‘इस्पात का चौखटा‘‘ कहा गया है जिसने भारत ‘ में ब्रिटिश शासन का पोषण किया और लंबी अवधि तक बनाए रखा। कालक्रम । से भारतीय जीवन में जो कुछ भी प्रगतिशील और उन्नत बातें थीं उनकी यह विरोधी बन गईं और इस प्रकार वह उदीयमान भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के हमले का निशाना बनीं।

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